भारत और चीन के शुरुआती रिश्ते
वर्ष 1947 में भारत को अंग्रेज़ों से आजादी मिली इसके 2 साल पश्चात चीन में गृह युद्ध समाप्त हुआ और कम्युनिस्टों ने विजयी होने के साथ चीन में Peolpe's Republic of China की स्थापना की| शुरुआती सालों में भारत और चीन के बीच रिश्ते काफी अच्छे हुआ करते थे| भारत सरकार चीन का पुरज़ोर समर्थन करती थी, इसके विपरीत पश्चिमी देश चीन का विरोध करते थे क्योंकि वह एक कम्युनिस्ट देश था| प्रधानमंत्री नेहरु चीन को एक सच्चा मित्र मानते थे इसका अंदाजा इसी बात से लग सकता है कि जापान द्वारा बुलाई गई मीटिंग में प्रधानमंत्री नेहरु नहीं जाते थे क्योंकि वहां चीन को आमंत्रित नहीं किया जाता था|
वर्ष 1950 में चीन ने अनाधिकृत रूप से तिब्बत पर कब्जा कर लिया जिसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई देशों ने विरोध किया परंतु भारत ने चीन का विरोध नहीं किया भारत का कहना था कि तिब्बत ऐतिहासिक रूप से चीन का हिस्सा रहा है इसलिए चीन को यह अधिकार है कि वह तिब्बत को स्वयं के साथ मिला ले| वर्ष 1954 में भारत और चीन के मध्य पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर हुए इस समझौते के तहत दोनों देशों ने यह स्वीकार किया कि वे एक दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करेंगे और शांत स्वभाव बनाए रखेंगे|
इसी कड़ी में प्रधानमंत्री नेहरू ने वर्ष 1960 में एक बहुत बड़ी भूल कर दी| वर्ष 1960 में एशिया में से किसी एक देश को वीटो का अधिकार मिलना था जिसके लिए यूएन ने भारत को चुना परंतु भारतीय प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने यह कहा कि भारत को वीटो की कोई आवश्यकता नहीं है वे इस अधिकार को चीन को सौंप दें जिसके बाद वीटो का अधिकार चीन के पास चला गया| इसे पंडित नेहरू के जीवन की सबसे बड़ी गलतियों में से एक माना जाता है|
भारत और चीन के बीच तनाव
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद कई वर्षों पुराना है| भारत और चीन की सीमाओं का दावा हिमालय की उन जटिल परिस्थितियों में पड़ने वाले इलाकों तक किया जाता है जिसकी ओर बहुत कम रियासतों का राज रहा| उस वक्त की ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी और चीन की रियासतों के बीच हिमालय एक काल्पनिक रेखा का कार्य किया करता था इसे ही बाद में दोनों देशों की रियासतों ने स्वीकार कर लिया, इसी कारण से यह विषय विवाद का विषय बना हुआ है|
वर्ष 1956 में चीन में एक हाईवे का निर्माण करवाया गया जो कि अक्साई चीन से होकर गुजरता था| उस वक्त तक अक्साई चीन भारत का हिस्सा हुआ करता था इसलिए भारत सरकार ने इस पर आपत्ति जताई, हालांकि भारत सरकार को वर्ष 1959 तक यह बात पता भी नहीं चली कि चीन ने अक्साई चीन में एक हाईवे का निर्माण करवाया है परंतु इस बात का पता चलने के बाद भारत सरकार ने चीन से इस बात को लेकर आपत्ति व्यक्त की| इस घटना के बाद दोनों देशों के रिश्ते में तनावपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो गई|
वर्ष 1959 में ही तिब्बत में चीनी सैनिकों के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे, चीन के सैनिकों ने इस प्रदर्शन को पूर्णतः कुचल डाला| तिब्बत से लोगों को पलायन करना पड़ा, यहां तक की दलाई लामा को तिब्बत से भारत में आकर शरण लेनी पड़ी| भारत ने दलाई लामा को शरण दी थी इस बात को लेकर चीन, भारत से खफा हो गया और चीन ने इस बात पर विरोध भी जताया|
वर्ष 1960 में चीन के एक बड़े राजनेता ज़ू इन्लाई का भारत दौरा हुआ उन्होंने भारत सरकार के समक्ष एक प्रस्ताव रखा था जिसमें यह कहना था कि NEFA(North Eastern Frontier Agency) जोकि आगे चलकर वर्ष 1987 में अरुणाचल प्रदेश बना, वह इंडिया के पास रहेगा और अक्साई चीन, चीन में मिल जाए जिससे कि सीमा विवाद का भी अंत हो जाएगा| प्रधानमंत्री नेहरू ने इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया|
वर्ष 1960 की फॉरवर्ड पॉलिसी
वर्ष 1960 तक भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के हालात बहुत गंभीर हो गए थे इसी बात को देखते हुए वर्ष 1960 में भारत सरकार द्वारा फॉरवर्ड पॉलिसी अपनाई गई जिसके अंतर्गत भारत-चीन सीमा पर भारतीय सैनिकों की ज्यादा से ज्यादा चौकियां बनवाई गई, सैनिकों की गश्त बढ़ाई गए जिससे कि भविष्य में हमला होने पर भारतीय सेना तैयार रह सके| मैकमोहन लाइन और अक्साई चीन के पास भारत ने बहुत कम समय में अपनी कई चौकियां बना ली थी| ऐसा भी कहा जाता है कि भारत सरकार को यह सुझाव IB(इंटेलीजेन्स ब्यूरो) ने दिया था| भारत की इस कारवाई से चीन सचेत हो गया| चीन का कहना था कि भारत तिब्बत पर हमला करके उसे स्वयं में मिलाना चाहता है या उसे एक स्वतंत्र देश पुनः बनाना चाहता है इसलिए वह फॉरवर्ड पॉलिसी अपना रहा है|
सन् 62 का युद्ध
20 अक्टूबर 1962 को चीन ने अचानक भारत पर हमला कर दिया| चीन ने 4 दिनों के भीतर ही NEFA और तवांग प्रदेश पर कब्जा कर लिया चीनी सैनिक असम के प्रमुख शहर तेज़पुर तक आ पहुंचे थे| चार दिनों की लड़ाई के बाद कोई खास लड़ाई नहीं हुई इसके पश्चात बातचीत का दौर चालू हो गया| चीन के राजनेता ज़ूह इन्हलाई ने प्रधानमंत्री नेहरू को यह प्रस्ताव भेजा कि दोनों देश अपनी सेनाओं को 20 किलोमीटर पीछे लेंगे| हालांकि उनका यह कहना था कि चीन के सैनिक पहले ही 60 किलोमीटर अंदर आ चुके हैं इसलिए वह यहां से 20 किलोमीटर पीछे होंगे| पंडित नेहरू ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया एवं 14 नवंबर को युद्ध पुनः आरंभ हो गया| इस युद्ध में भारत के 1386 जवान शहीद हो गए और लगभग 1700 ऐसे भी जवान थे जिनका कोई पता नहीं चला, युद्ध के पश्चात 4000 सैनिकों को बंदी बना लिया गया जिन्हें बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण छोड़ दिया गया|
इस युद्ध में विशेष रुप से भारत और चीन के सैनिकों के बीच हुए रेज़ांग ला की लड़ाई को याद किया जाता है भारत के लद्दाख के पास चूशूल में भारतीय सेना की एक हवाई पट्टी थी इस पर चीनी सैनिक कब्जा करना चाहते थे लेकिन उसके लिए उन्हें सर्वप्रथम रेजांग ला को पार करना पड़ता| भारतीय सेना के 13वीं कुमाऊं के लगभग 123 जवानों ने मेजर शैतान सिंह की अगुवाई में चीन के तकरीबन हजार सैनिकों से युद्ध किया और भारतीय सेना की हवाई पट्टी को खोने से बचा लिया इस रेज़ांग ला की लड़ाई में कुल 114 भारतीय सैनिक शहीद हो गए जिसमें मेजर शैतान सिंह भी शामिल थे| यह युद्ध प्राकृतिक रूप से भी काफी चुनौतीपूर्ण था क्योंकि यह युद्ध लगभग 17000 फीट की ऊंचाई पर लड़ा जा रहा था|
21 नवंबर 1962 को चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी| अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण चीन मैकमोहन लाइन जोकि भारत चीन सीमा रेखा थी उससे 20 किलोमीटर पीछे हट गया किंतु इस युद्ध के पश्चात अक्साई चीन पर पूर्णतः चीन का कब्जा हो गया, चीन ने अपनी सेना को यहां से पीछे नहीं हटाया|
भारत के युद्ध हारने की वजह
इस युद्ध से पहले भारत हाल ही में आजाद हुआ था और भारत की अर्थव्यवस्था भी उतनी सुदृढ़ नहीं थी इसलिए इस युद्ध के होने से पहले भारत सरकार को पूर्णतः ये यकीन था कि युद्ध टल जाएगा जिसके कारण भारत सरकार ने उतनी सजग तैयारियां नहीं की जितनी उन्हें करनी चाहिए थी| इस युद्ध को हारने की एक वजह यह भी थी कि भारतीय सेना और राजनेताओं के बीच तालमेल की कमी थी, भारत के उस वक्त के रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने भारतीय वायुसेना और नौसेना को इस युद्ध में शामिल ही नहीं होने दिया उनका कहना था कि यदि वायु सेना और नौसेना इस युद्ध में शामिल होगी तो यह युद्ध एक भयानक रुख अपना सकता है जोकि भारत सरकार की सबसे बड़ी भूल साबित हुई| हालांकि उस वक्त भारतीय वायु सेना चीन की वायुसेना से कई गुना ताकतवर थी यदि उन्हें इस युद्ध में लड़ने का अवसर दिया जाता तो युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता|
भारत के इस युद्ध को हारने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि भारतीय सैनिकों के पास जरूरतमंद साजो सामान की हद से ज्यादा कमी हो गई थील भारतीय सैनिकों के पास बर्फ की लड़ाई में पहने जाने वाले कपड़े और जूते भी नहीं थे| कई वीर सिपाहियों की शहादत तो सिर्फ प्रकृति की मार के कारण हो गई| भारतीय सैनिकों के पास सबसे जरूरी वस्तु गोलियो की ही कमी पड़ गई थी जिसके कारण उन्हें युद्ध को हाथ से गंवाना पड़ा| भारतीय सैनिकों के पास पर्याप्त अनाज भी नहीं पहुंच पा रहा था जबकि चीन के सैनिकों को पीछे से पूरी सप्लाई मिल रही थी जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने युद्ध की तैयारी पहले से ही करके रखी थी ताकि युद्ध छिड़ने पर उन्हें किसी प्रकार की दिक्कत का सामना ना करना पड़े| भारत इस युद्ध में क्यों हारा सवाल पर शोध करने के लिए सेना के 2 बड़े अधिकारियों लेफ्टिनेंट जनरल हेंडरसन और लेफ्टिनेंट जनरल भगत को रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा गया, उन्होंने रिपोर्ट पेश भी की| ऐसा कहा जाता है कि उस रिपोर्ट में भारत सरकार और पंडित नेहरू की गलत नीतियों को भारत की हार का जिम्मेदार बताया गया| हालांकि भारत सरकार द्वारा वह रिपोर्ट कभी सार्वजनिक तौर पर जारी नहीं की गई|
भारत की सीख
इस युद्ध से सीख लेकर भारत सरकार ने अपनी सेना को और सशक्त बनाया, इसके लिए उन्होंने हर वह जरूरी कदम उठाया जो सेना और देश के हित में हो| इसके बाद सेना को कभी भी किसी वस्तु की कमी नहीं हुई| सेना की हर बटालियन के पास अपना अनाज का स्टॉक होता था| भारत सरकार ने इसके बाद की लड़ाईयों में वायु सेना और नौसेना का भी सही ढंग से प्रयोग किया जिससे कि युद्ध के नतीजे भारत के पक्ष में रहे|
धन्यवाद
गौरव कुमार






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